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लुप्त हो रही कैलिग्राफी को बचाने के लिए एक अनूठी पहल

लुप्त हो रही कैलिग्राफी को बचाने के लिए एक अनूठी पहल

लखनऊ : लखनऊ सोसाइटी ने कैलिग्राफी की लुप्त हो रही कला को बचाने के लिए एक अनूठी पहल की है और 21 वीं सदी में भी इसे फिर से जीवित करने का प्रयास किया जा रहा है। लखनऊ सोसाइटी के संस्थापक शमीम आरज़ू के अनुसार ये “लेटस सेव कैलीग्राफी” का तीसरा संस्करण है जिसमे हमने लोगों को लुप्त हो रही इस कला को सीखने के लिए आमंत्रित किया और इसके लिए 60 से अधिक आवेदन प्राप्त हुए हैं| इस कोर्स में २० से अधिक लोग भाग ले रहे हैं जो की लखनऊ में है और अपना पूरा समय दे सकते हैं| जिसमे 8 सत्रों में विशेषज्ञों के विशेष लेक्चर के साथ साथ एक “कैलीग्राफी हेरिटेज वाक” भी कराई जाएगी। लखनऊ के प्रसिद्ध तुग़रा कैलिग्राफर अज़ीम हैदर जाफरी छात्रों को स्क्रिप्ट और कैलिग्राफी की कला सिखाएंगे जिसमे उर्दू के साथ साथ छात्रों को हिंदी और अंग्रेजी कैलिग्राफी भी सिखाई जाएगी।

उद्घाटन सत्र में अवध के प्रसिद्ध इतिहासकार, श्री रोशन ताक्वी ने छात्रों को कैलिग्राफी के इतिहास के साथ साथ भारत में और अवध में उसके प्रयोग और कैलीग्राफी के प्रकारो के बारे में अवगत कराया। सत्र में भाग लेने वालो में छात्र, गृहिणियां और कॉर्पोरेट पेशेवर शामिल हैं, जो की विशेषज्ञों से इस अनोखी कला को सीखने के लिए काफी उत्साहित है।

पहले और दुसरे संस्करण की प्रशिक्षित सुलेखक आकांक्षा रानी और अहमद सुहैल इस बैच के छात्रों के लिए प्रेरणादायक थीं। कैलीग्राफी “खुश ख़त्ताति” की उत्पत्ति भारत में लगभग 13 वीं शताब्दी में हुई थी, यह एक दुर्लभ कला है। इसे दिल्ली सल्तनत के शासकों, मुगल वंशों और क्षेत्रीय राजवंशों द्वारा संरक्षण दिया गया था। दिल्ली, लाहौर और लखनऊ कैलिग्राफी के प्रमुख केंद्र थे। इसकी पहुंच नवाबों के अधीन अवध तक है जिसके सुबूत और उदाहरण सुलेख शेख इब्राहिम, नादान महल की कब्र पर देखे जा सकते है, जो लखनऊ का सबसे पुराने स्मारकों में से एक है। लखनऊ में छोटा इमामबाड़ा पर कैलिग्राफी का सबसे अच्छा उदाहरण देखा जा सकता है । अब्दुल हलीम शरर ने अपनी पुस्तक ‘गुज़िश्त लखनऊ’ में उसी के बारे में बताया है और मुंशी नवल किशोर प्रेस ने भी इस कला को बढ़ावा देने में अपना योगदान दिया है।

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