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मजाज़ लखनवी : उर्दू शायरी का जॉन कीट्स

मजाज़ लखनवी : उर्दू शायरी का जॉन कीट्स


लेखक : शहाब खान गोड़सरावी
(ग़ाज़ीपुर)mob.8299001993


उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले के रुदौली गांव में 19 अक्टूबर 1911 को जमींदार परिवार में जन्‍मे उर्दू के मारूफ शायर ‘मजाज़’ लखनवी का मूल नाम असरारुल हक़ था। मजाज़ के बुजुर्गों में एक मशहूर फारसी सूफी शायर उस्ताद उस्मान हारूनी थे, जिनसे मजाज़ की शायरी का ताल मेल कुछ हद तक मिला करता था। मजाज़ के दादा चौधरी अहमद की तीन बेटियां और चार बेटे थे। मजाज़ के पिता का नाम सिराज उल हक था। चौधरी सिराज उल हक अपने इलाके में पहले आदमी थे, जिन्होंने वकालत की डिग्री हासिल की थी।

मजाज रुदौलवी फाइल फोटो

वे रजिस्ट्री विभाग में सरकारी मुलाजिम थे। वालिद चाहते थे कि उनका बेटा इन्जीनियर बने लेकिन मजाज के हाथों की लकीरों में तो कुछ और ही लिखा था। मजाज की माता नेक दिल खातून थीं लेकिन इतिहास के पन्नों से उनका नाम अप्राप्त है। मजाज़ की प्राईमरी इस्लामिक शिक्षा पैतृक गांव रूदौली से हुई।

उसके बाद हाईस्कूल की शिक्षा लखनऊ स्थित आमीनाबाद इण्टर कॉलेज में हुई। मजाज 18 वर्ष की उम्र में पिता के साथ आगरा को चले गये, वहां पर उन्होंने दाखिला सेण्ट जांस कॉलेज में इण्टर साइन्स में लिया। इसी बीच उनके पिता का ट्रांसफर दुबारा अलीगढ़ को हो गया। परिवार के जाने के बाद मजाज़ आगरा स्थित हींग की मंडी मोहल्ले के कमरे को छोड़कर हॉस्टल में रहने लगे। उस वक्त आगरा शायरों का केन्द्र हुआ करता था।

फानी बदायूंनी, जज़बी, आले अहमद सुरूर, मयकश अकबराबादी, हमिद हसन कादरी जैसे शायरों के बीच रहते हुए, उन्हें शायरी का शौक लग गया। उस वक्त वह शहीद नाम से शायरी किया करते थे और जज़बी मलाल उनका उपनाम था। कॉलेज कम्पटीशन में मजाज़ ने पहली बार गजल कही और गोल्ड मैडल हासिल किया। इण्टर के बाद 1931 में मजाज़ को अलीगढ़ बुला लिया गया, जहां बीए में दाखिला लिया।

यहां उनकी शायरी और निखरी, उन्हें अख्तर हुसैन रायपुरी, जानिसार अख्तर, सिब्ते हसन, हयातउल्लाह अंसारी, जज़बी, सआदत हसन मंटो, असमत चुगताई, अली सरदार जाफरी जैसे काबिल और नौजवान शायरों का साथ मिला। अलीगढ़ से बीए करने के बाद एमए में एडमिशन लेते ही उन्हें दिल्ली में ऑल इंडिया रेड़ियो में एडिटर की नौकरी मिल गई। दिल्ली मजाज़ को रास न आयी। सियासत के चलते पहली नौकरी से बर्खास्त हुए। इसके बाद पहला इश्क नाकामयाब हुआ।

इश्क ऐसा किया जो कभी हासिल न हुआ। आंगे वो लिखते हैं…मैं बताऊ क्या तुझे ए हमनशीं किससे मेरी मुहब्बत है, मैं जिस दुनिया में रहता हूं, वो इस दुनिया की औरत है। लेकिन दोनों ही नाकामी ने उन्हें तोड़ दिया। नतीजा यह रहा कि वह नशे में डूबने लगे। नशे और बेरोजगारी की वजह से मजाज़ को 1940, 45, 52 में मानसिक तकलीफ से जूझना पड़ा। उनके पारिवारिक शायर जोश मालियाबादी के कहने पर उन्हें रांची के मानसिक अस्पताल में इलाज करवाना पड़ा। मजाज़ लड़कियों में ज्यादा मशहूर हुए क्योंकि उन्होंने उनके हुस्न के अलावा प्रोग्रेसिव सोच के साथ शायरी की।

मजाज़ मौत से माशूका की तरह प्यार करते है। दोस्ती में मोहब्बत का कभी कभी गला भी घोंटना पड़ता है। मजाज़ की जिंदगी पर अफजल उस्मानी द्वारा फिल्माया गया, कहकशां सीरीयल की वह सच्ची मोहब्बत की सच्ची शेर जो मेरे जेहन में है।

जिंदगी सांस दे रही मुझे
ज़हर आवाज़ दे रही मुझे
और बहोत्त दूर अशमानों से
मौत आवाज़ दे रही मुझे

मजाज़ की सबसे पसंदीदा जगह अलीगढ़ स्थित ओल्ड इंडियन कॉफी हाउस थी। कॉफी हाउस में उनकी कॉर्नर टेबल फिक्स थी। जब भी मजाज़ दोस्तों के साथ कॉफी हाउस को आते, नौजवान लड़के एवं लड़कियों की भीड़ उनकी ग़ज़ल सुनने को इकट्ठा हो जाते। मजाज़ अलीगढ़ में दोस्तों के साथ मिलकर प्रोग्रेसिव राईटर एसोसिएशन कायम किए। मजाज़ के करीबी साथी शारिब रुदौलवी अपने किताब में लिखते हैं कि मजाज़ नेक दिल, सच्चे और सभ्य इन्शान थे। वो लखनऊ के न्यू हैदराबाद स्थित दारूलसिराज में रहा करते थे।

मजाज़ जब नशे में होते तो मां-बाप की एहतराम में वो घर को नहीं जाते। अक्सर, मेरे हॉस्टल लखनऊ यूनिवर्सिटी को आते। कभी उनको भूख होती तो मुझसे खाना मांगते या फिर मेश बन्द होने पर बिस्किट खाकर सो जाते। मजाज़ जब 1942 में मुंबई के बाद दिल्ली से लखनऊ को आये तो वो नया अदब मैगजीन में फिराक गोरखपुरी के साथ मिलकर काम किए।

मजाज़ रांची से लौटने के बाद शराबनोशी को पूरी तरह छोड़ चुके थे। लेकिन 3,4,5 दिसंबर 1955 को उर्दू के हालात पर स्टूडेंट्स उर्दू कन्वेंशन का आयोजन लखनऊ में किया गया। जिसमें मजाज़ भी शामिल हुए और शायरी की एक बेहतरीन महफील सजाई। इसके बाद 4 दिसंबर की रात वो अपने दोस्तों के साथ लालबाग के होटल “लॉरी की छत” पर शराब पीने गये।

उन्होंने शराब कुछ ज्यादा पी ली, जिससे वो बेहोश हो गिर पड़े। दिसंबर की सर्द रात और एक कमीज और जैकेट में वो बेहोशी की हालत में पड़े थे। सुबह जब शराबखाने में बोतल जमा करने वाले लड़के ने उन्हें देखा तो बेहोशी की हालत में बलरामपुर अस्पताल में भर्ती करवाया। जहां 05 दिसंबर 1955 को तकरीबन 10 बजकर 22 मिनट पर उन्होंने अन्तिम सांस ली और इस गम भरी दुनिया को अलविदा कह गये।

उन्हें निशातगंज कब्रिस्तान में उनकी बहन सफिया खातून के बगल में दफनाया गया। मजाज़ ने उर्दू शायरी में जो मकाम हासिल किया, वह बहुतों के हिस्से नहीं आया। मजाज़ की मकबूलियत का आलम यह था कि उनकी विश्व प्रसिद्ध नज़्में दूसरी भाषाओं में भी खूब सराही गई। मजाज़ उस दौर के शायर हैं जब उर्दू में तरक्कीपसंद शायराना अदब अपना आकार ले रहा था।

मजाज़ के कलाम में जगह-जगह रूमानियत भी दिखाई देती है। उनके व्यक्तित्व में संकल्पशीलता और अति संवेदनशीलता का एक अजीब विरोधाभास था। तरक्की पसंद शायर मजाज की संकल्पशीलता जब उभरकर सामने आती तो साम्राज्यवाद और फासीवाद के खिलाफ बयान जारी करते, लेकिन जब अति संवेदनशीलता उभरती तो हुस्न, इश्क़ और शराब की गहराइयों में डूब जाते। मजाज़ जिस दौर में लिख रहे उस वक्त देश में हिन्दू-मुस्लिम का भेद चरम था। मजाज़ हिन्दू मुस्लिम के इस मजहबी झगड़े का विरोध करते हुए लिखते है- हिंदू चला गया न मुसलमां चला गया।

इंसा की जुस्तुजू में इक इंसा चला गया। वहीं अपनी एक सामाजिक सौंदर्य शेर में एक छोटी बच्ची को नन्ही सीता कहना मजाज़ के गंगा-जमुनी तहजीब को दरसाता है। मजाज़ के सम्मान में सन 2008 में डाक टिकट जारी करते हुए पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने कहा कि मजाज़ का व्यक्तित्व बड़ा रंगमय था और उनकी शायरी की गूंज अपने जमाने में सबसे बुलंद थी।

मजाज की ज़िंदगी के कुछ पन्ने मजाज़ को बहुत पसंद था इसलिए इस डाक टिकट पर लखनऊ की स्काईलाइन दिखाई गई है और अलीगढ़ यूनिवर्सिटी उनके द्वारा लिखी सन 1936 में तराने, मैं तेरे चमन का बुलबुल हूँ से आज भी गूंजता रहता है इसलिए बैकग्राउंड में अलीगढ़ यूनिवर्सिटी को देखा जा सकता है। मजाज़ के भांजे गीतकार जावेद अख़्तर भी इस मौके पर मौजूद थे।

सरफराज ए मजाज़ को अलीग-ए-दिल्ली रास नहीं आया
लखनऊ ए जाम ने इश्क ए मजाज़ की जिंदगी को ले डुबोया |

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