उत्तर प्रदेशलखनऊ

एडवांस तकनीकों की मदद से मल्टीपल मायलोमा का इलाज और लंबे समय तक कंट्रोल करना हुआ संभव – डा. राहुल भार्गव

एडवांस तकनीकों की मदद से मल्टीपल मायलोमा का इलाज और लंबे समय तक कंट्रोल करना हुआ संभव – डा. राहुल भार्गव

लखनऊ । मल्टीपल मायलोमा के बारे में लोगों को जानकारी देने के लिए पूरा महीना जागरुकता दिवस के रुप में मनाया जाता है। गौरतलब है कि मल्टीपल मायलोमा एक तरह का कैंसर है, जो प्लाज़मा कोशिकाओं में पाया जाता है। प्लाज़मा कोशिकाएं आमतौर पर बोन मैरो और कम मात्रा में खून में पाई जाती है। ये ऐंटीबॉड़ीज बनाकर संक्रमण से लड़ने में सहायक होती है। जब ये कोशिकाएं अनियंत्रित तरीके से टूटने लगे और पूरे शरीर में असामान्य तरीके से फैलने लगे, तो मल्टीपल मायलोमा बीमारी होने लगती है।
गुरुग्राम के फोर्टीस अस्पताल के इंस्टीट्यूट ऑफ ब्लड डिसऑडर्स के डॉयरेक्टर डॉ. राहुल भार्गव ने बताया, “कुछ साल पहले तक मायलोमा का कोई इलाज नहीं था लेकिन नई थेरेपियों में एडवांस तकनीकों और नई दवाईयों के चलते इसे लंबे समय तक नियंत्रित किया जा सकता है। इससे दवाईयों, नई तकनीकों और जीवन बढ़ाने की दर बढ़ी है। जीवन दर को बोन मैरो ट्रांसप्लांट से और अधिक बढ़ाया जा सकता है। इन दिनों ये ज़्यादा महंगा भी नहीं है और रोगी को अस्पताल में करीब 10 दिन रहना होता है।”

इन इलाज के तरीकों से लोगों का जीवन दर बढ़ा है और हो सकता है कि पीड़ित लोग 2025 का सूर्योदय भी देख सके और हो सकता है मल्टीपल मायलोमा पीड़ित रोगियों का इलाज भी हो सके।
मल्टीपल मायलोमा के कई लक्षण हो सकते हैं, जिसमें गुर्दों का फेल होना आम है और इसके अलावा हड्डियों के टूटने के साथ कमर दर्द, लंबे समय तक अनीमिया होना, थकान और मूत्र में संक्रमण होना भी इस बीमारी के लक्षण हो सकते हैं। ये लक्षण अन्य बीमारियों से मिलते हैं कि इसकी पहचान डॉक्टर ही कर सकते हैं। ऐसे लक्षण होने पर डॉक्टर की सलाह लेनी चाहिए कि ये सामान्य है या फिर मल्टीपल मायलोमा के लक्षण है।
इस बारे में डॉ. राहुल भार्गव कहते हैं, “ अगर मल्टीपल मायलोमा का शुरुआती दौर में पता चल जाए, तो जीवनदर बढ़ने के चांस ज़्यादा होते हैं। वर्तमान में दवाईयों न तो ज़्यादा महंगी है और न ही इससे बाल झड़ने, दस्त और उल्टी होने जैसे लक्षण भी नहीं होते। मायलोमा के इलाज में दवाईयों का तरीका अब इंसुलिन इंजेक्शन लगाने जैसा होता जा रहा है और साथ में ओरल दवाईयां है। इससे रोगी की ज़िंदगी काफी आसान हो रही है।“
गौरतलब है कि मायलोमा से पीड़ित अमेरिकन रोगियों के मुकाबले भारतीय रोगी करीब एक दशक छोटे है और इन नए इलाज के तरीकों को अपनाकर वह अपने काम पर भी जा रहे हैं। इसलिए उम्मीद है कि मायलोमा को लेकर लोगों में जागरुकता बढ़ेगी। वैसे भी मायलोमा को रक्त कैंसर से जोड़कर नहीं देखना चाहिए क्योंकि इससे लोगों में डर बैठ जाता है, इसलिए इसे मल्टीपल मायलोमा ही कहा जाना चाहिए नाकि रक्त कैंसर।
डॉ. राहुल भार्गव ने बताया, “ ये बताना ज़रुरी है कि मल्टीपल मायलोमा पूरी तरह से ठीक किया जा सकता है और आजकल तो कई ऐसी एडवांस तकनीक आ गई है कि जिन रोगियों की बीमारी को लाइलाज बता दिया गया था, वह भी सामान्य और स्वस्थ जीवन बिता रहे हैं। बस महत्वपूर्ण है कि मायलोमा रोगियों को सही समय पर हेमाटोलोजिस्ट-ओनकोलोजिस्ट डॉक्टर से सलाह लेनी चाहिए।”

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