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कभी जो चमकता था आफ़ताब की तरह

कभी जो चमकता था आफ़ताब की तरह


 रिपोर्ट अलीम कशिश

रुदौली | अदालत में जिसकी ज़ोरदार वा तर्कपूर्ण बहस से विपक्षी के पसीने छूट जाते थे, सदन व मंच पर जिसकी तकरीरों को सुनने के लिए लोग उत्सुक रहते थे। जिसने ना जाने कितने मुशायरों और कवि सम्मेलनों, सामाजिक व सांस्कृतिक कार्यक्रमों को अपनी सदारत से गौरांवित किया हो। जिसे अकेले निर्विरोध ज़िला बार एसोसिएशन के अध्यक्ष पद पर आसीन किए जाने का गौरव प्राप्त हो।

जो एक बार सपा से निर्वाचित हुआ और दोबारा विधि विशेषज्ञ के आधार पर राज्यपाल द्वारा विधान परिषद का सदस्य बनाया गया हो। जो राज्य अल्पसंख्यक आयोग के चेयरमैन के पद पर आसीन रह चुका हो। जिसके बिना ज़िले की कोई महफ़िल पूरी ना होती हो, जिसके किस्से और जुमले बैठकों में दोहराए जाते हो वो असाधारण इंसान आज बीमारी के चलते अकेले पन से जूझ रहा है।
बड़ेल स्थित गयासुद्दीन किदवई साहब की कोठी आजकल वीरान नज़र आती है।

महफिलें मुल्तवी हो चुकी है। कहकहों का दौर थम सा गया है। जूनियर वकीलों का आवागमन बंद सा हो गया है। रोज़ हाजिरी देने वाले साथी बाराती अब कभी कभी हाल लेने जाते हैैं। सपा बसपा जहां उनकी तूती बोलती थी उन दलों के नेताओं ने हाल लेना तक बंद कर दिया है।
हाल के दिनों में हुए हाथ और पैर के फ्रैक्चर के चलते किदवई साहब की ज़िदंगी समिट कर बिस्तर तक आ गई है लेकिन गुज़रा एक एक पल उन्हें याद है। पूछने पर वकालत और सियासत के तमाम किस्से उन्हें याद आते है पर ज़बान ज़्यादा साथ नहीं देती।

कमज़ोरी भारी पड़ गई है।बात अधूरी रह जाती है। ये भी याद है कि लोहिया जी घर आए थे उनसे मुलाक़ात के बाद ही सियासत में पैर रखा। सदन की बातें याद है। दोस्तो का ज़िक्र करते है। उन्हें दवा से ज़्यादा दोस्तों की ज़रुरत है, अपनों की ज़रुरत है जिनके साथ वो ज़िदंगी को जिया करते थे। उनका ड्राइंग रूम भी सबकी प्रतीक्षा कर रहा है जिनकी मौजूदगी से उनके साहब की सेहत बीमारी में भी ठीक हो जाया करती थी।

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