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मूर्तियों की माया
वर्ष 2008 में मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी, तभी से खुद अपनी और दलित नेताओं की मूर्तियों के साथ हाथियों की करोड़ों की मूर्तियां बनवाने से विवादों में घिरी रहीं। विपक्षी पार्टियों के लिए माया की मूर्तियां हमेशा एक राजनीतिक हथियार बनती रहीं। सवाल उछलते रहे कि प्रदेश के लिए यह करोड़ों की मूर्तियां आवश्यक हैं या विकास। यह विवाद उनकी अपनी पार्टी में सुलगने लगा था कि दलितों के विकास और रोजगार देने की बजाय इस तरह से पार्टी के सिंबल का विज्ञापन-प्रदर्शन करके जनता के धन का दुरुपयोग किया जा रहा है। इससे संबंधित एक याचिका सर्वोच्च न्यायालय में 2009 में दाखिल की गई थी, जिसमें उन्हें पदच्युत करने और सीबीआई द्वारा जांच करने की मांग की गई थी। लेकिन करदाताओं के धन के दुरुपयोग की मनमानी होती रही। नोएडा और लखनऊ में प्रमुख मार्गों और विभिन्न स्थानों पर मूर्तियों का निर्माण उसी तरह जारी रहा। यहां तक कि 2012 के चुनाव के समय चुनाव आयोग ने हाथियों की प्रतिमाओं को ढकने का आदेश भी दे दिया था। इस तरह हाथियों की मूर्तियों के निर्माण पर जनता का करीब 2000 करोड़ रुपया खर्च किया गया और रोम के स्मारकों को टक्कर देती हुई सेंड स्टोन की मूर्तियां और पार्क बनाए जो कि सिर्फ एक नेता के अहम पूर्ति के लिए किए गए।
अब न्यायालय ने एक सख्त निर्णय लेते हुए मायावती को वह सभी धन, जो उन्होंने मूर्तियों पर खर्च किया है, उसे वापस करने का आदेश दिया है। इस मामले में निर्णायक सुनवाई 2 अप्रैल को होगी। यही नहीं, मायावती ने हाथियों की मूर्तियों पर पैसे पानी की तरह बहाने के साथ ही भारतीय सभ्यता और संस्कृति के इस प्रतीक को सिर्फ चुनाव निशान बना डाला। महात्मा बुद्ध की जीवन कथाओं में हाथियों का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। हिंदू धर्म में भी हाथी कई देवी-देवताओं के वाहन के रूप में प्रतिस्थापित किए गए हैं। इसीलिए यदि इसे सिर्फ एक पार्टी के चुनाव चिन्ह के रूप में ही स्थापित किया गया तो यह पौराणिक और धार्मिक मान्यताओं के साथ अन्याय ही होगा।