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शेल्टर के नाम पर
मुजफ्फरपुर की दिल दहलाने वाली घटना के बाद यूपी के देवरिया से आई शेल्टर होम त्रासदी की खबर इस आशंका की पुष्टि करती है कि बेसहारा लड़कियों को आश्रय और संरक्षण के नाम पर नरक में झोंकने की यह प्रवृत्ति एक या दो बुरे अपवादों तक सीमित नहीं है।
कुछ ही दिन पहले गाजियाबाद में भी एक शेल्टर होम से तीन नाबालिग लड़कियां और एक युवती भाग निकली थीं, जिनमें से दो बाद में वाराणसी में मिलीं। देवरिया वाले मामले में तो कथित संस्थान के खिलाफ पहले से शिकायत दर्ज थी। उसका लाइसेंस भी कैंसल किया जा चुका था। इसके बावजूद न केवल वह शेल्टर होम निर्बाध चल रहा था बल्कि वहां अवैध और अनैतिक गतिविधियां भी नहीं रोकी जा सकीं।
मामला तब खुला जब इस शेल्टर होम में रह रही एक लड़की जैसे-तैसे वहां से निकल भागी। उसने पुलिस थाने पहुंच कर बताया कि कैसे वहां से लड़कियों को देर रात कार में बाहर भेजा जाता है, जो सुबह रोती हुई लौटती हैं। गाजियाबाद की घटना इस लिहाज से गौर करने लायक है कि ऐसे मामलों में जांच की दशा-दिशा क्या होती है।
कहा जा रहा है कि शेल्टर होम की वार्डन ने दरवाजे को रोज की तरह भीतर और बाहर दोनों तरफ से बंद नहीं किया। सिर्फ उसे अंदर से लॉक किया और चाबी भी टेबल पर छोड़ दी। संभवत: इसी के चलते लड़कियां भाग निकलीं। पता नहीं कोई यह भी सोच रहा है या नहीं कि लड़कियां वहां से भागने को मजबूर क्यों हुईं? उन्हें वहां किस हाल में रखा जा रहा था? उनके लिए किस तरह का भविष्य सोचा जा रहा था? उनके पुनर्वास की क्या व्यवस्था की जा रही थी?
दिलचस्प है कि एक के बाद एक सामने आ रहे ऐसे मामलों से उपजे तमाम सवालों के जवाब उस ऐंटी-ट्रैफिकिंग बिल को बताया जा रहा है, जिसे लोकसभा पास कर चुकी है और जो जल्द ही राज्यसभा से भी पास हो जाएगा। उस विधेयक की खूबियां अपनी जगह हैं, लेकिन अभी जो मामले सामने आ रहे हैं, उनके पीछे कानून की कमी से ज्यादा प्रशासनिक लापरवाही जिम्मेदार दिख रही है। ज्यादा कड़ा और दूरदर्शी कानून बनाने के अलावा हमें यह भी सुनिश्चित करना होगा कि कानून लागू करने वाली एजेंसियां अपना काम मुस्तैदी से करें।